ढोला मारू
ढोला मारू रा दूहा ग्यारहवीं शताब्दी मे रचित एक लोक-भाषा काव्य है। मूलतः दोहो में रचित इस लोक काव्य को सत्रहवीं शताब्दी मे कुशलराय वाचक ने कुछ चौपाईयां जोड़कर विस्तार दिया। इसमे राजकुमार ढोला और राजकुमारी मारू की प्रेमकथा का वर्णन है। ढोला-मारू का कथानक इस प्रेम वार्ता का कथानक, सूत्र में इतना ही है कि पूंगल का राजा अपने देश में अकाल पड़ने के कारण मालवा प्रान्त में, परिवार सहित जाता है। उसकी शिशु वय की राजकुमारी (मारवणी) का बाल-विवाह, मालवा के साल्हकुमार (ढोला) से कर दिया जाता है। सुकाल हो जाने से पूंगल का राजा लौट कर घर आ जाता है। साल्हकुमार वयस्क होने पर अपनी पत्नी को लिवाने नहीं जाता है। उसे इस बाल विवाह का ज्ञान भी नहीं होता है। इस बीच साल्हकुमार का विवाह मालवाणी से हो जाता है जो सुन्दर और पति-अनुरक् ता है। मालवणी को मारवणी (सौत) के होने का ज्ञान है और पूंगल का कोई संदेश अपने मालवा में आने नहीं देती है। कालांतर में मारवणी (मारू) अंकुरित यौवना होती है। उस पर यौवन अपना रंग दिखाता है। इधर स्वप्न में उसे प्रिय का दर्शन भ