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सूरदास की रचनाएँ

1   अंखियां हरि-दरसन की प्यासी। देख्यौ चाहति कमलनैन कौ¸ निसि-दिन रहति उदासी।। आए ऊधै फिरि गए आंगन¸ डारि गए गर फांसी। केसरि तिलक मोतिन की माला¸ वृन्दावन के बासी।। काहू के मन को कोउ न जानत¸ लोगन के मन हांसी। सूरदास प्रभु तुम्हरे दरस कौ¸ करवत लैहौं कासी।। —————————————————————————————————————- 2 निसिदिन बरसत नैन हमारे। सदा रहत पावस ऋतु हम पर, जबते स्याम सिधारे।। अंजन थिर न रहत अँखियन में, कर कपोल भये कारे। कंचुकि-पट सूखत नहिं कबहुँ, उर बिच बहत पनारे॥ आँसू सलिल भये पग थाके, बहे जात सित तारे। ‘सूरदास’ अब डूबत है ब्रज, काहे न लेत उबारे॥ —————————————————————————————————————- 3 मधुकर! स्याम हमारे चोर। मन हरि लियो सांवरी सूरत¸ चितै नयन की कोर।। पकरयो तेहि हिरदय उर-अंतर प्रेम-प्रीत के जोर। गए छुड़ाय छोरि सब बंधन दे गए हंसनि अंकोर।। सोबत तें हम उचकी परी हैं दूत मिल्यो मोहिं भोर। सूर¸ स्याम मुसकाहि मेरो सर्वस सै गए नंद किसोर।। —————————————————————————————————————- 4 बिनु गोपाल बैरिन भई कुंजैं। तब ये लता लगति अति सीतल¸

कबीर का व्यक्तित्व

हिंदी साहित्य में कबीर का व्यक्तित्व अनुपम है। गोस्वामी तुलसीदास को छोड़ कर इतना महिमामण्डित व्यक्तित्व `कबीर’ के सिवा अन्य किसी का नहीं है। कबीर की उत्पत्ति के संबंध में अनेक किंवदन्तियाँ हैं। कुछ लोगों के अनुसार वे जगद्गुरु रामानन्द स्वामी के आशीर्वाद से काशी की एक विधवा ब्राह्मणी के गर्भ से उत्पन्न हुए थे। ब्राह्मणी उस नवजात शिशु को लहरतारा ताल के पास फेंक आयी। उसे नीरु नाम का जुलाहा अपने घर ले आया। उसीने उसका पालन-पोषण किया। बाद में यही बालक कबीर कहलाया। कतिपय कबीर पन्थियों की मान्यता है कि कबीर की उत्पत्ति काशी में लहरतारा तालाब में उत्पन्न कमल के मनोहर पुष्प के ऊपर बालक के रूप में हुई। एक प्राचीन ग्रंथ के अनुसार किसी योगी के औरस तथा प्रतीति नामक देवाङ्गना के गर्भ से भक्तराज प्रल्हाद ही संवत १४५५ ज्येष्ठ शुक्ल १५ को कबीर के रूप में प्रकट हुए थे। कुछ लोगों का कहना है कि वे जन्म से मुसलमान थे और युवावस्था में स्वामी रामानन्द के प्रभाव से उन्हें हिंदु धर्म की बातें मालूम हुईं। एक दिन, एक पहर रात रहते ही कबीर पञ्चगंगा घाट की सीढ़ियों पर गिर पड़े। रामानन्द जी गंगास्नान क

भक्ति आन्दोलन

हिन्दू आध्यात्मिकता की पुनर्व्याख्या की सबसे स्पष्ट मिसाल मध्यकालीन भक्ति आन्दोलन के विवेचन के सन्दर्भ में मिलती है। इस विवेचन में भक्ति आन्दोलन की सराहना और सख्त आलोचना दोनों ही एक साथ उपस्थित है। बालकृष्ण भट्ट के लिए भक्तिकाल की उपयोगिता अनुपयोगिता का प्रश्न मुस्लिम चुनौती का सामना करने से सीधे सीधे जुड़ गया था। इस दृष्टिकोण के कारण भट्ट जी ने मध्यकाल के भक्त कवियों का काफी कठोरता से विरोध किया और उन्हें हिन्दुओं को कमजोर करने का जिम्मेदार भी ठहराया। भक्त कवियों की कविताओं के आधार पर उनके मूल्यांकन के बजाय उनके राजनीतिक सन्दर्भों के आधार पर मूल्यांकन का तरीका अपनाया गया। भट्ट जी ने मीराबाई व सूरदास जैसे महान कवियों पर हिन्दू जाति के पौरुष पराक्रम को कमजोर करने का आरोप मढ़ दिया। उनके मुताबिक समूचा भक्तिकाल मुस्लिम चुनौती के समक्ष हिन्दुओं में  मुल्की जोश’ जगाने में नाकाम रहा। भक्त कवियों के गाये भजनों ने हिन्दुओं के पौरुष और बल को खत्म कर दिया। उन्होंने भक्त कवियों की इसी कमजोरी और नाकामी के विषय में लिखा :    मीराबाई, सूरदास, कुम्भनदास, सनातन गोस्वामी आदि कितने महा