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इज्ज़त का ख़ून

इज्ज़त का ख़ून प्रेमचंद की कहानी मैंने कहानियों और इतिहासो मे तकदीर के उलट फेर की अजीबो- गरीब दास्ताने पढी हैं । शाह को भिखमंगा और भिखमंगें को शाह बनते देखा है तकदीर एक छिपा हुआ भेद हैं । गालियों में टुकड़े चुनती हुई औरते सोने के सिंहासन पर बैठ गई और वह ऐश्वर्य के मतवाले जिनके इशारे पर तकदीर भी सिर झुकाती थी ,आन की शान में चील कौओं का शिकार बन गये है।पर मेरे सर पर जो कुछ बीती उसकी नजीर कहीं नहीं मिलती आह उन घटानाओं को आज याद करतीहूं तो रोगटे खड़े हो जाते है ।और हैरत होती है । कि अब तक मै क्यो और क्योंकर जिन्दा हूँ । सौन्दर्य लालसाओं का स्त्रोत हैं । मेरे दिल में क्या लालसाएं न थीं पर आह ,निष्ठूर भाग्य के हाथों में मिटीं । मै क्या जानती थी कि वह आदमी जो मेरी एक-एक अदा पर कुर्बान होता था एक दिन मुझे इस तरह जलील और बर्बाद करेगा । आज तीन साल हुए जब मैने इस घर में कदम रक्खा उस वक्त यह एक हरा भरा चमन था ।मै इस चमन की बुलबूल थी , हवा में उड़ती थीख् डालियों पर चहकती थी , फूलों पर सोती थी । सईद मेरा था। मै सईद की थी । इस संगमरमर के हौज के किनारे हम मुहब्बत के पासे खेलते थे । - तुम मेरी जान हो।

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है

'हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है' आज यह सूत्र वाक्य बेमानी सा लगने लगा है. मन के किसी कोने से अंग्रेजी के प्रति प्रेम भाव जागता है और हिंदी अधिकारी, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी के प्रति सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेने वाले भी अपने बच्चों को कान्वेंटी शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज देते हैं. इसके पीछे उनकी मूल भावना यही होती है कि बच्चा अंग्रेजी जान लेगा, तो उसका भविष्य भले ही सुखद न हो, पर दु:खद भी न हो. इस भावना के पीछे यही भाव है कि अंग्रेजियत हिंदी पर हावी होती जा रही है. हिंदी के ज्ञानी सच कहें, तो घास ही छिल रहे हैं. अंग्रेजी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भी आज अफसर बन बैठा है. हिंदी की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है. साल में एक दिन मिल ही जाता है, चिंता करने के लिए. पर इसके लिए दोषी तो हम स्वयं हैं, क्योंकि अभी तक हिंदी को वह सम्मान ही नहीं दिया, जिसके वह लायक है. हिंदी राजनीति की शिकार हो गई, हिंदी समिति की सिफारिशें सिसक रहीं हैं, आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, और हमारे नेताओं और अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. नेता तो अब इससे वोट नहीं बटोर सकते. शालाओं में हिंदी बोलने