हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है

'हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है' आज यह सूत्र वाक्य बेमानी सा लगने लगा है. मन के किसी कोने से अंग्रेजी के प्रति प्रेम भाव जागता है और हिंदी अधिकारी, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी के प्रति सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेने वाले भी अपने बच्चों को कान्वेंटी शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज देते हैं. इसके पीछे उनकी मूल भावना यही होती है कि बच्चा अंग्रेजी जान लेगा, तो उसका भविष्य भले ही सुखद न हो, पर दु:खद भी न हो. इस भावना के पीछे यही भाव है कि अंग्रेजियत हिंदी पर हावी होती जा रही है. हिंदी के ज्ञानी सच कहें, तो घास ही छिल रहे हैं. अंग्रेजी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भी आज अफसर बन बैठा है. हिंदी की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है. साल में एक दिन मिल ही जाता है, चिंता करने के लिए. पर इसके लिए दोषी तो हम स्वयं हैं, क्योंकि अभी तक हिंदी को वह सम्मान ही नहीं दिया, जिसके वह लायक है. हिंदी राजनीति की शिकार हो गई, हिंदी समिति की सिफारिशें सिसक रहीं हैं, आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, और हमारे नेताओं और अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. नेता तो अब इससे वोट नहीं बटोर सकते. शालाओं में हिंदी बोलने वाले को संजा मिलती है. पाठ्यक्रम में राम, रहीम, सीता की जगह जॉन, रॉबर्ट, मेरी, जूली ने ले ली है. दक्षिण के लोग भले ही हिंदी का विरोध करें, लेकिन वे आज भी हिंदी फिल्में चाव से देखते हैं और उसके गाने गुनगुनाते हैं. हम हिंदी जानने वाले ही हिंदी को निकृष्ट भाषा मानते हैं. इसके प्रति पहले हम समर्पित हों, तभी दूसरों को उपदेश दे सकते हैं. 

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