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आल्हा

आल्हा आल्हा का नाम किसने नहीं सुना। पुराने जमाने के चन्देल राजपूतों में वीरता और जान पर खेलकर स्वामी की सेवा करने के लिए किसी राजा महाराजा को भी यह अमर कीर्ति नहीं मिली। राजपूतों के नैतिक नियमों में केवल वीरता ही नहीं थी बल्कि अपने स्वामी और अपने राजा के लिए जान देना भी उसका एक अंग था। आल्हा और ऊदल की जिन्दगी इसकी सबसे अच्छी मिसाल है। सच्चा राजपूत क्या होता था और उसे क्या होना चाहिये इसे लिस खूबसूरती से इन दोनों भाइयों ने दिखा दिया है, उसकी मिसाल हिन्दोस्तान के किसी दूसरे हिस्से में मुश्किल से मिल सकेगी। आल्हा और ऊदल के मार्के और उसको कारनामे एक चन्देली कवि ने शायद उन्हीं के जमाने में गाये, और उसको इस सूबे में जो लोकप्रियता प्राप्त है वह शायद रामायण को भी न हो। यह कविता आल्हा ही के नाम से प्रसिद्ध है और आठ-नौ शताब्दियॉँ गुजर जाने के बावजूद उसकी दिलचस्पी और सर्वप्रियता में अन्तर नहीं आया। आल्हा गाने का इस प्रदेश मे बड़ा रिवाज है। देहात में लोग हजारों की संख्या में आल्हा सुनने के लिए जमा होते हैं। शहरों में भी कभी-कभी यह मण्डलियॉँ दिखाई दे जाती हैं। बड़े लोगों की अपेक्षा सर्वसाधारण में य

जहां चाह वहां राह

जहां चाह वहां राह वाली कहावत आज भी प्रसंगिक है. पुराने लोग कहते थे कि अगर आप ठान लें कि आपको समाज के लिए कुछ करना है, तो न तो आपको संसाधनों की कमी रहेगी और न ही आपकी शारीरिक कमजोरी इसमें बाधा बनेगी. इसके लिए आपका समर्पण और जुनून ही काफी है. सीवान के अनिल कुमार मिश्रा ने ऐसा ही कुछ कर दिखाया है. अनिल खुद तो मूक-बधिर हैं लेकिन उनके द्वारा किया जा रहा शिक्षा दान न जाने कितने सूरदासों के लिए ‘आंख’ तो मूक व्यक्तियों के लिए ‘जुबान’ बन गया है. सीवान जिले के गोरियाकोठी प्रखंड के हरपुर गांव निवासी अनिल जन्म से ही मूक-बधिर हैं. इस कारण उनके जन्म लेने की खुशी तो उनके घर में नहीं मनी थी परंतु बकौल अनिल उनके पिता रामदयाल मिश्र ने उन्हें अच्छी शिक्षा देने का मन अवश्य बना लिया था. अनिल अपनी बातें इशारों में बताते हैं. उनका कहना है कि उनके पिता ने बड़े उत्साह के साथ उनकी पढ़ाई की शुरुआत करवाई थी. समाज और परिजनों के विरोध के बावजूद भी पटना के एक मूक-बधिर विद्यालय में उनका नामांकन करवाया गया. शुरुआत में तो उन्हें भी कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया.

माता पिता को दिशा-निर्देश

किसी भी व्यक्ति के जीवन में परिवार प्राथमिक एकक हैं। और माता-पिता इस एकक के स्तम्भ हैं। माता पिता और परिवार को कार्य-निष्पादन हेतु कतिदय उत्तरदायित्वों की पूर्ति करनी आवश्यक हैं। परिवार को आमदनी पैदा करनी चाहिए और अपने सदस्यों तथा घर को अनुरक्षित करना एवम्‌ परस्पर प्रेम सौहार्द बनाये रखना तथा यह सुनिश्चित करना चाहिए कि बच्चों को समाजिक मानकों को सिखाया जाता हैं और उन्हें शिक्षित किया जाता हैं। जब एक बालक विकलांग हैं तो ये उत्तरदायित्व और भी अत्यावश्यक हो जाती हैं। विकलांग सदस्य की देखभाल और सुरक्षा के लिए धन, समय और ऊर्जा की आवश्यकता पडती हैं। इसके अतिरिक्त विकलांग व्यक्ति में आत्म्गौरव तथा सामाजिक कुशलता विकसित करने की समस्या के साथ साथ यह भी आवश्यक हैं कि विकलांग व्यक्ति समुचित रुप से शिक्षण प्राप्त करता हैं। प्रत्येक सामान्य काम भी अधिक कठिन तथा पर्याप्त तनावयुक्त बन जाता हैं। सुजनन आन्दोलन (1880-1930) के अनुसार बालक के भौतिक, भावनात्मक अथवा बौध्दिक विकलांकता का स्रोत माता-पिता ही रहें। इस आन्दोलन का प्रथमिक लक्ष्य मानव प्रजनन के नियमन द्वारा मानवीय त्रुटियों को दूर करन