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एक सामाजिक विश्लेषण

जिन दिनों कबीर दास का आविर्भाव हुआ था, उन दिनों हिंदूओं में पौराणिक मत ही प्रबल था। देश में नाना प्रकार की साधनाएँ प्रचलित थी। कोई वेद का दिवाना था, तो कोई उदासी और कई तो ऐसे थे, जो दीन बनाए फिर रहा था, तो कोई दान- पुण्य में लीन था। कई व्यक्ति ऐसे थे, जो मदिरा के सेवन ही में सब कुछ पाना चाहता था तथा कुछ लोग तंत्र- मंत्र, औषधादि की करामात को अपनाए हुआ था। इक पठहि पाठ, इक भी उदास, इक नगन निरन्तर रहै निवास, इक जीग जुगुति तन खनि, इक राम नाम संग रहे लीना। कबीर ने अपने चतुर्दिक जो कुछ भी देखा- सुना और समझा, उसका प्रचार अपनी वाणी द्वारा जोरदार शब्दों में किया :- ऐसा जो जोग न देखा भाई, भुला फिरे लिए गफिलाई महादेव को पंथ चलावे, ऐसा बड़ो महंत कहावै।। कबीर दास ने जब अपने तत्कालीन समाज में प्रचलित विडम्बना देखकर चकित रह गए। समाज की इस दुहरी नीति पर उन्होंने फरमाया :- पंडित देखहु मन मुंह जानी। कछु धै छूति कहां ते उपजी, तबहि छूति तुम मानी। समाज में छुआछूत का प्रचार जोरों पर देखकर कबीर साहब ने उसका खंडन किया। उन्होंने पाखंडी पंडित को संबोधित करके कहा कि छुआछूत की बीमारी कहाँ से उपजी। तुम

राष्ट्रभाषा के लिए

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महात्मा गाँधी राष्ट्र के लिए राष्ट्रभाषा को नितांत आवश्यक मानते थे। उनका कहना था, "राष्ट्रभाषा के बिना राष्ट्र गूंगा है।" गाँधीजी हिन्दी के प्रश्न को स्वराज का प्रश्न मानते थे— "हिन्दी का प्रश्न स्वराज्य का प्रश्न है।" उन्होंने हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में सामने रखकर भाषा–समस्या पर गम्भीरता से विचार किया। 1917 ई. में भड़ौंच में आयोजित गुजरात शिक्षा परिषद के अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधीजी ने कहा, राष्ट्रभाषा के लिए 5 लक्षण या शर्तें होनी चाहिए — अमलदारों के लिए वह भाषा सरल होनी चाहिए। यह ज़रूरी है कि भारतवर्ष के बहुत से लोग उस भाषा को बोलते हों। उस भाषा के द्वारा भारतवर्ष का अपनी धार्मिक, आर्थिक और राजनीतिक व्यवहार होना चाहिए। राष्ट्र के लिए वह भाषा आसान होनी चाहिए। उस भाषा का विचार करते समय किसी क्षणिक या अल्पस्थायी स्थिति पर ज़ोर नहीं देना चाहिए।" वर्ष 1918 ई. में हिन्दी साहित्य सम्मेलन के इन्दौर अधिवेशन में सभापति पद से भाषण देते हुए गाँधी जी ने राष्ट्रभाषा हिन्दी का समर्थन किया, "मेरा यह मत है कि हिन्दी ही हिन्दुस्