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अमृत

अमृत १ मेरी उठती जवानी थी जब मेरा दिल दर्द के मजे से परिचित हुआ। कुछ दिनों तक शायरी का अभ्यास करता रहा और धीर-धीरे इस शौक ने तल्लीनता का रुप ले लिया। सांसारिक संबंधो से मुंह मोड़कर अपनी शायरी की दुनिया में आ बैठा और तीन ही साल की मश्क़ ने मेरी कल्पना के जौहर खोल दिये। कभी-कभी मेरी शायरी उस्तादों के मशहूर कलाम से टक्कर खा जाती थी। मेरे क़लम ने किसी उस्ताद के सामने सर नहीं झुकाया। मेरी कल्पना एक अपने-आप बढ़ने वाले पौधे की तरह छंद और पिंगल की क़ैदो से आजाद बढ़ती रही और ऐसे कलाम का ढंग निराला था। मैंने अपनी शायरी को फारस से बाहर निकाल कर योरोप तक पहुँचा दिया। यह मेरा अपना रंग था। इस मैदान में न मेरा कोई प्रतिद्वंद्वी था, न बराबरी करने वाला बावजूद इस शायरों जैसी तल्लीनता के मुझे मुशायरों की वाह-वाह और सुभानअल्लाह से नफ़रत थी। हां, काव्य-रसिकों से बिना अपना नाम बताये हुए अक्सर अपनी शायरी की अच्छाइयों और बुराइयों पर बहस किया करता। तो मुझे शायरी का दावा न था मगर धीरे-धीरे मेरी शोहरत होने लगी और जब मेरी मसनवी ‘दुनियाए हुस्न’ प्रकाशित हुई तो साहित्य की दुनिया में हल-चल-सी मच गयी। पुराने शायरों

अपनी करनी

अपनी करनी १ आह, अभागा मैं! मेरे कर्मो के फल ने आज यह दिन दिखाये कि अपमान भी मेरे ऊपर हंसता है। और यह सब मैंने अपने हाथों किया। शैतान के सिर इलजाम क्यों दूं, किस्मत को खरी-खोटी क्यों सुनाऊँ, होनी का क्यों रोऊं? जों कुछ किया मैंने जानते और बूझते हुए किया। अभी एक साल गुजरा जब मैं भाग्यशाली था, प्रतिष्ठित था और समृद्धि मेरी चेरी थी। दुनिया की नेमतें मेरे सामने हाथ बांधे खड़ी थीं लेकिन आज बदनामी और कंगाली और शंर्मिदगी मेरी दुर्दशा पर आंसू बहाती है। मैं ऊंचे खानदान का, बहुत पढ़ा-लिखा आदमी था, फारसी का मुल्ला, संस्कृत का पंण्डित, अंगेजी का ग्रेजुएट। अपने मुंह मियां मिट्ठू क्यों बनूं लेकिन रुप भी मुझको मिला था, इतना कि दूसरे मुझसे ईर्ष्या कर सकते थे। ग़रज एक इंसान को खुशी के साथ जिंदगी बसर करने के लिए जितनी अच्छी चीजों की जरुरत हो सकती है वह सब मुझे हासिल थीं। सेहत का यह हाल कि मुझे कभी सरदर्द की भी शिकायत नहीं हुई। फ़िटन की सैर, दरिया की दिलफ़रेबियां, पहाड़ के सुंदर दृश्य –उन खुशियों का जिक्र ही तकलीफ़देह है। क्या मजे की जिंदगी थी! आह, यहॉँ तक तो अपना दर्देदिल सुना सकता हूँ लेकिन इसके आगे फ

अनाथ लड़की

अनाथ लड़की सेठ पुरुषोत्तमदास पूना की सरस्वती पाठशाला का मुआयना करने के बाद बाहर निकले तो एक लड़की ने दौड़कर उनका दामन पकड़ लिया। सेठ जी रुक गये और मुहब्बत से उसकी तरफ देखकर पूछा—क्या नाम है? लड़की ने जवाब दिया—रोहिणी। सेठ जी ने उसे गोद में उठा लिया और बोले—तुम्हें कुछ इनाम मिला? लड़की ने उनकी तरफ बच्चों जैसी गंभीरता से देखकर कहा—तुम चले जाते हो, मुझे रोना आता है, मुझे भी साथ लेते चलो। सेठजी ने हँसकर कहा—मुझे बड़ी दूर जाना है, तुम कैसे चालोगी? रोहिणी ने प्यार से उनकी गर्दन में हाथ डाल दिये और बोली—जहॉँ तुम जाओगे वहीं मैं भी चलूँगी। मैं तुम्हारी बेटी हूँगी। मदरसे के अफसर ने आगे बढ़कर कहा—इसका बाप साल भर हुआ नही रहा। मॉँ कपड़े सीती है, बड़ी मुश्किल से गुजर होती है। सेठ जी के स्वभाव में करुणा बहुत थी। यह सुनकर उनकी आँखें भर आयीं। उस भोली प्रार्थना में वह दर्द था जो पत्थर-से दिल को पिघला सकता है। बेकसी और यतीमी को इससे ज्यादा दर्दनाक ढंग से जाहिर कना नामुमकिन था। उन्होंने सोचा—इस नन्हें-से दिल में न जाने क्या अरमान होंगे। और लड़कियॉँ अपने खिलौने दिखाकर कहती होंगी, यह मेरे बाप ने दिया है। वह

अंधेर

अंधेर नागपंचमी आई। साठे के जिन्दादिल नौजवानों ने रंग-बिरंगे जॉँघिये बनवाये। अखाड़े में ढोल की मर्दाना सदायें गूँजने लगीं। आसपास के पहलवान इकट्ठे हुए और अखाड़े पर तम्बोलियों ने अपनी दुकानें सजायीं क्योंकि आज कुश्ती और दोस्ताना मुकाबले का दिन है। औरतों ने गोबर से अपने आँगन लीपे और गाती-बजाती कटोरों में दूध-चावल लिए नाग पूजने चलीं। साठे और पाठे दो लगे हुए मौजे थे। दोनों गंगा के किनारे। खेती में ज्यादा मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी इसीलिए आपस में फौजदारियॉँ खूब होती थीं। आदिकाल से उनके बीच होड़ चली आती थी। साठेवालों को यह घमण्ड था कि उन्होंने पाठेवालों को कभी सिर न उठाने दिया। उसी तरह पाठेवाले अपने प्रतिद्वंद्वियों को नीचा दिखलाना ही जिन्दगी का सबसे बड़ा काम समझते थे। उनका इतिहास विजयों की कहानियों से भरा हुआ था। पाठे के चरवाहे यह गीत गाते हुए चलते थे: साठेवाले कायर सगरे पाठेवाले हैं सरदार और साठे के धोबी गाते: साठेवाले साठ हाथ के जिनके हाथ सदा तरवार। उन लोगन के जनम नसाये जिन पाठे मान लीन अवतार।। गरज आपसी होड़ का यह जोश बच्चों में मॉँ दूध के साथ दाखिल होता था और उसके प्रदर्शन का सबसे अच्छा

हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है

'हिंदी हमारी राष्ट्रभाषा है' आज यह सूत्र वाक्य बेमानी सा लगने लगा है. मन के किसी कोने से अंग्रेजी के प्रति प्रेम भाव जागता है और हिंदी अधिकारी, हिंदी के प्राध्यापक और हिंदी के प्रति सब कुछ न्योछावर करने का संकल्प लेने वाले भी अपने बच्चों को कान्वेंटी शिक्षा ग्रहण करने के लिए भेज देते हैं. इसके पीछे उनकी मूल भावना यही होती है कि बच्चा अंग्रेजी जान लेगा, तो उसका भविष्य भले ही सुखद न हो, पर दु:खद भी न हो. इस भावना के पीछे यही भाव है कि अंग्रेजियत हिंदी पर हावी होती जा रही है. हिंदी के ज्ञानी सच कहें, तो घास ही छिल रहे हैं. अंग्रेजी का थोड़ा सा ज्ञान रखने वाला भी आज अफसर बन बैठा है. हिंदी की दुर्दशा से हर कोई वाकिफ है. साल में एक दिन मिल ही जाता है, चिंता करने के लिए. पर इसके लिए दोषी तो हम स्वयं हैं, क्योंकि अभी तक हिंदी को वह सम्मान ही नहीं दिया, जिसके वह लायक है. हिंदी राजनीति की शिकार हो गई, हिंदी समिति की सिफारिशें सिसक रहीं हैं, आदेशों की धज्जियाँ उड़ाई जा रही है, और हमारे नेताओं और अफसरों को कोई फर्क नहीं पड़ रहा है. नेता तो अब इससे वोट नहीं बटोर सकते. शालाओं में हिंदी बोलने

जहां चाह वहां राह

जहां चाह वहां राह वाली कहावत आज भी प्रसंगिक है. पुराने लोग कहते थे कि अगर आप ठान लें कि आपको समाज के लिए कुछ करना है, तो न तो आपको संसाधनों की कमी रहेगी और न ही आपकी शारीरिक कमजोरी इसमें बाधा बनेगी. इसके लिए आपका समर्पण और जुनून ही काफी है. सीवान के अनिल कुमार मिश्रा ने ऐसा ही कुछ कर दिखाया है. अनिल खुद तो मूक-बधिर हैं लेकिन उनके द्वारा किया जा रहा शिक्षा दान न जाने कितने सूरदासों के लिए ‘आंख’ तो मूक व्यक्तियों के लिए ‘जुबान’ बन गया है. सीवान जिले के गोरियाकोठी प्रखंड के हरपुर गांव निवासी अनिल जन्म से ही मूक-बधिर हैं. इस कारण उनके जन्म लेने की खुशी तो उनके घर में नहीं मनी थी परंतु बकौल अनिल उनके पिता रामदयाल मिश्र ने उन्हें अच्छी शिक्षा देने का मन अवश्य बना लिया था. अनिल अपनी बातें इशारों में बताते हैं. उनका कहना है कि उनके पिता ने बड़े उत्साह के साथ उनकी पढ़ाई की शुरुआत करवाई थी. समाज और परिजनों के विरोध के बावजूद भी पटना के एक मूक-बधिर विद्यालय में उनका नामांकन करवाया गया. शुरुआत में तो उन्हें भी कुछ समझ में नहीं आता था लेकिन धीरे-धीरे उन्होंने अपनी कमजोरी को ही अपनी ताकत बना लिया.

Vani Upachar

Advocate Punjab Sirbhate coined his lifelong experience in the book titled “MUKBADHIR WANI UPCHAR & PRAYAS PADDHATI” (SPEECH THERAPY FOR DEAF AND DUMB BY PRAYAS THE INNOVATIVE METHOD). The compiled work exhibits his method of linguistic development accomplished in case of deaf and dumb students. I had a prolonged discussion with him on the same topic. Some of his activities has been demonstrated in local institutions. Process of ascent coined by Ad Sirbhate in seven prominent steps is appropriate and scientific also. Since the way of communication available for a deaf and dumb learner is visual, it creates much conflict in producing the exact impression of the pronunciation produce by the normal speech of a teacher. Ad Sirbhate exercised direct teaching method and also configured some good communication techniques for achieving the goal. You may contact him at : 07152-231608 09421783761